उन्हें गुजरात की राजधानी में ले जाने में कहीं कुछ गलत नहीं है। पहले भी भारत सरकार प्रमुख विदेशी मेहमानों को अहमदाबाद ले जाती रही है। ऐसी हर यात्रा में मेहमानों को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के साबरमती आश्रम में ले जाना भी उतना ही जरूरी समझा गया है, जितना अहमदाबाद की 'भव्यता' और 'रीवर फंट' की शान दिखाना। इस बार भी यह सब होगा। पर इस बार 'नमस्ते ट्रम्प' के आयोजन में कुछ दिखाने के साथ-साथ कुछ न दिखाया जाना भी महत्वपूर्ण है। प्रधानमंत्री मोदी जब अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ शोभा यात्रा में निकलेंगे तो इस बात का विशेष ध्यान रखा जायेगा कि देश की गरीबी पर दुनिया के सबसे धनी देश माने जाने वाले अमेरिका के राष्ट्रपति की नज़र न पड़ जाये। जहां एक ओर दुनिया के सबसे बड़े स्टेडियम का राष्ट्रपति ट्रम्प के हाथों उद्घाटन कराया जा रहा है, वहीं उसी अहमदाबाद में हवाई अड्डे से स्वागत-समारोह के स्थान तक जाने की राह में दिखाई देने वाली एक छोटी-सी झोपड़पट्टी के सामने एक दीवार बनाकर उसे अमेरिकी राष्टपति की नजरों से बचाने की कोशिश हो रही है। जब कोई मेहमान घर आता है तो घर को साफसुथरा दिखाने की कोशिश हम सब करते हैं, पर अहमदाबाद की 'भव्यता' के चेहरे पर एक दाग की तरह दिखने वाली इस झोपड़पट्टी को अपने महत्वपूर्ण मेहमान की आंखों से बचाने की यह कोशिश देश की जनता की आंखों में खटकने लगी है। चीन के राष्ट्रपति और जापान के प्रधानमंत्री की यात्रा के दौरान भी इस झोपड़पट्टी को परदे में रखा गया था, पर तब परदा एक हरे कपड़े का था। लगभग पांच सौ कच्चे घरों वाली इस बस्ती को तब और अन्य बड़े मेहमानों के आने पर भी, हरे कपड़े की दीवार बना कर ढक दिया जाता रहा है, पर इस बार दीवार ईंटों की बनायी जा रही है। पक्की दीवार । चार से छह फुट ऊंची और आधा किलोमीटर लंबी इस दीवार के बनने के बाद देवसरन या सरलियावास की यह बस्ती छिप जायेगी। दीवार के साथ-साथ पेड़- पौधे भी लगाये जा रहे हैं ताकि दीवार भी सुंदर लगे। इन पौधों की विशेषता यह है कि ये उगाये नहीं जायेंगे, लगाये जायेंगे। अर्थात कहीं से लाकर उन्हें यहां रोप दिया जायेगा। और जैसा कि अक्सर होता है, विशेष मेहमान के जाने के यह तो नहीं पता कि इस सौंदर्गीकरण पर अहमदाबाद महानगरपालिका कितना खर्च कर रही है, पर अनुमान लगाया जा रहा है कि अमेरिकी राष्ट्रपति के स्वागत में शहर की सोलह सड़कों को देखने लायक बनाने में लगभग पचास करोड़ रुपये खर्च होंगे। सवाल जो उठ रहा है वह यह है कि इतनी बड़ी राशि से तो सरलियावास की पांच सौ कच्चे मकानों की इस बस्ती के ढाई हजार लोगों को पक्के मकान बनाकर दिये जा सकते थे! आधा किलोमीटर लंबी दीवार से यह 'गंदी बस्ती' तो ढक जायेगी, पर क्या इससे देश की गरीबी भी छिप जायेगी?देश में पिछली बार जनगणना सन? 2011 में हुई थी। इसके अनुसार देश की 22 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे का जीवन जी रही थी। इसका मतलब होता है बत्तीस से सैंतालीस रुपये प्रतिदिन का खर्च करने की क्षमता । निश्चित रूप से इस स्थिति में सुधार हो रहा है। उम्मीद की जा रही है कि सन? 2030 तक भारत लगभग ढाई करोड़ परिवारों को गरीबी की रेखा से ऊपर लाने में सफल हो जायेगा। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। ये आंकड़े आश्वासन तो देते हैं, पर इस हकीकत को छिपा नहीं पाते कि इक्कीसवीं सदी के भारत में, विकास के सारे दावों के बावजूद, देश की एक-चौथाई आबादी भरपेट भोजन नहीं पा रही है। इन तथ्यों को छिपाकर नहीं, इन्हें बदलकर ही एक समृद्ध भारत के नक्शे में रंग भरे जा सकते हैं। आज आधा किलोमीटर लंबी दीवार बनाकर अहमदाबाद के सरदार पटेल हवाई अड्डे से इंदिरा पुल तक के रास्ते में बसी झोपड़पट्टी को अपने मेहमान की आंखों से भले ही हम बचा लें, पर इस हकीकत को कैसे छिपाया जायेगा कि यह पांच सौ कच्चे घर पिछले पचास साल से यहां हैं, और विकास के सारे दावों के बावजूद इनमें रहने वाले ढाई हजार लोग अभावों की जिंदगी जी रहे हैं। इस कच्ची बस्ती का यहां होना और इसे मेहमान की आंख से छिपाने की कोशिश इन पचास सालों में राज करने वालों की नीतियों और नीयत, दोनों, पर उंगली उठा रही है। यहीं सवाल प्राथमिकताओं का भी उठता है। अहमदाबाद में दुनिया का सबसे बड़ा स्टेडियम बन रहा है, जहां 'लाखों लोग' अमेरिकी राष्ट्रपति का स्वागत करेंगे। दुनिया की सबसे बड़ी मूर्ति बनाने का गर्व भी हम कर सकते हैं। लेकिन इस 'बडेपन' और इस 'भव्यता' को पांच सौ कच्चे घरों की बस्ती चनौती दे रही है। भव्यता की इस होड में हम यह भल रहे हैं कि होड हर भारतीय को बेहतर जिंदगी देने की होनी चाहिए। हाल ही में हुए दिल्ली के चुनाव में 'आप' के नेता केजरीवाल से यह पछा गया था कि उन्होंने दिल्ली वालों के लिए सस्ती बिजली, सस्ता पानी, बेहतर शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य की चनौती को कैसे स्वीकारा। उन्होंने उत्तर में बताया था, 'गुजरात के मुख्यमंत्री ने अपने आराम और शान के लिए 191 करोड रुपये का विमान खरीदा है, मैंने वह 191 करोड़ रुपया दिल्ली की जनता के हित के लिए खर्च कर दिया।' चनाव के परिणाम बता रहे हैं कि दिल्लीवासियों को यह बात समझ आ गयी। पर सवाल यह है कि हमारे नेताओं को यह बात कब समझ आयेगी? कब उन्हें लगेगा कि उनकी प्राथमिकताओं में कहीं कोई कमी है? शानदार इमारतें, ऊंची-ऊंची प्रतिमाएं, बढिया सड़कें, बुलेट की तेजी से चलने वाली रेलगाड़ियां यह सब अच्छा लगता है। गर्व भी किया जा सकता है इन सब पर। लेकिन सच्चा गर्व तो तब होगा जब हमें किसी झोपड़ी को किसी महल वाले से छिपाने की ज़रूरत महसूस न हो। जब किसी मेहमान के आने पर नहीं, देश की जनता की आवश्यकताओं को देखकर सड़कों की मरम्मत करना ज़रूरी लगे। शर्म इस बात पर नहीं आनी चाहिए कि हमारी जनता झोपड़पट्टियों में रहने के लिए विवश है, शर्म इस बात पर आनी चाहिए कि आजादी के सत्तर साल बाद भी हम इस विवशता को समाप्त नहीं कर पाये। शर्म इस बात पर भी आनी चाहिए कि हम शर्म के कारणों को मिटाने के बजाय उन्हें छिपाने की कोशिश कर रहे हैं ।जब कोई मेहमान घर आता है तो घर को साफ-सुथरा दिखाने की कोशिश हम सब करते हैं, पर अहमदाबाद की भव्यता' के चेहरे पर एक दाग की तरह दिखने वाली इस झोपड़पट्टी को अपने महत्वपूर्ण मेहमान की आंखों से बचाने की यह कोशिश देश की जनता की आंखों में खटकने लगी है। चीन के राष्ट्रपति और जापान के प्रधानमंत्री की यात्रा के दौरान भी इस झोपड़पट्टी को परदे में रखा गया था, पर तब परदा एक हरे कपड़े का था। लगभग पांच सौ कच्चे घरों वाली इस बस्ती को तब और अन्य बड़े मेहमानों के आने पर भी, हरे कपड़े की दीवार बना कर ढक दिया जाता रहा है,सूचना-क्रांति के इस युग में आप किसी से कुछ छिपा नहीं सकते। इसलिए, जो छिपाने लायक लग रहा है, उसे बदलने की ईमानदार कोशिश करने की ज़रूरत है।